सुबह की आज जो रंगत है वो पहले तो न थी
क्या खबर आज खिरामान सर-ए-गुलज़ार है कौन
शाम गुलज़ार हुई जाती है देखो तो सही
ये जो निकला है लिए मशाल-ए-रुखसार, है कौन
रात महकी हुई आयी है कहीं से पूछो
आज बिखराए हुए ज़ुल्फ़-ए-तरहदार है कौन
फिर दर-ए-दिल पे देने लगा है कोई दस्तक
जाने फिर दिल-ए-वहशी का तलबगार है कौन
जाने फिर दिल-ए-वहशी का तलबगार है कौन
फैज़ अहमद फैज़, 1953
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